1,111 bytes added,
11:24, 12 मई 2013 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार='अना' क़ासमी
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
उसको नम्बर देके मेरी और उलझन बढ़ गई
फोन की घंटी बजी और दिल की धड़कन बढ़ गई
इस तरफ़ भी शायरी में कुछ वज़न सा आ गया
उस तरफ़ भी चूड़ियों की और खन खन बढ़ गई
हम ग़रीबों के घरों की वुसअतें मत पूछिए
गिर गई दीवार जितनी उतनी आँगन बढ़ गई
मशवरा औरों से लेना इश्क़ में मंहगा पड़ा
चाहतें क्या ख़ाक बढ़तीं और अनबन बढ़ गई
आप तो नाज़ुक इशारे करके बस चलते बने
दिल के शोलों पर इधर तो और छन छन बढ़ गई
<poem>