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|रचनाकार=भवानीप्रसाद मिश्र
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जिन्दगी में कोई बड़ा सुख नहीं है,
इस बात का मुझे बड़ा दु:ख नहीं है,
क्योंकि मैं छोटा आदमी हूँ,
बड़े सुख आ जाएं घर में
तो कोई ऎसा कमरा नहीं है जिसमें उसे टिका दूं।
जिन्दगी में कोई बड़ा सुख नहीं है,<br>इस बात का मुझे बड़ा दु:ख नहीं है, <br>क्योंकि मैं छोटा आदमी हूँ, <br>बड़े सुख आ जाएं घर में<br>तो कोई ऎसा कमरा नहीं है जिसमें उसे टिका दूं ।<br><br>यहां एक बात <br>इससॆ भी बड़ी दर्दनाक बात यह है कि,<br>बड़े सुखों को देखकर <br>मेरे बच्चे सहम जाते हैं,<br>मैंने बड़ी कोशिश की है उन्हें <br>सिखा दूं कि सुख कोई डरने की चीज नहीं है ।<br><br>है। मगर नहीं<br>मैंने देखा है कि जब कभी <br>कोई बड़ा सुख उन्हें मिल गया है रास्ते में<br>बाजार में या किसी के घर,<br>तो उनकी आँखों में खुशी की झलक तो आई है,<br>किंतु साथ साथ डर भी आ गया है ।<br><br>है। बल्कि कहना चाहिये <br>खुशी झलकी है, डर छा गया है, <br>उनका उठना उनका बैठना<br>कुछ भी स्वाभाविक नहीं रह पाता,<br>और मुझे इतना दु:ख होता है देख कर<br>कि मैं उनसे कुछ कह नहीं पाता ।<br><br>पाता। मैं उनसे कहना चाहता हूँ कि बेटा यह सुख है,<br>इससे डरो मत बल्कि बेफिक्री से बढ़ कर इसे छू लो ।<br>लो।इस झूले के पेंग निराले हैं <br>बेशक इस पर झूलो, <br>मगर मेरे बच्चे आगे नहीं बढ़ते <br>खड़े खड़े ताकते हैं, <br>अगर कुछ सोचकर मैं उनको उसकी तरफ ढकेलता हूँ <br>हूँ।  तो चीख मार कर भागते हैं, <br><br>बड़े बड़े सुखों की इच्छा <br>इसीलिये मैंने जाने कब से छोड़ दी है,<br>कभी एक गगरी उन्हें जमा करने के लिये लाया था<br>अब मैंने उन्हें फोड़ दी है ।है।
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