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सरमाएदारी / मजाज़ लखनवी

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{{KKCatGhazal}}<poem>कलेजा फुक रहा है और जबाँ कहने से आरी है,<br>बताऊँ क्या तुम्हें क्या चीज यह सरमाएदारी है,<br> यह वह आँधी है जिसके रो में मुफलिस का नशेमन है,<br>यह वह बिजली है जिसकी जद में हर दहकान का खरमन है<br> यह अपने हाथ में तहजीब का फानूस लेती है,<br>मगर मजदूर के तन से लहू तक चूस लेती है<br> यह इंसानी बला खुद खूने इंसानी की गाहक है,<br>वबा से बढकर मुहलक, मौत से बढकर भयानक है।<br> न देखें हैं बुरे इसने, न परखे हैं भले इसने,<br>शिकंजों में जकड कर घोंट डाले है गले इसने।<br> कहीं यह खूँ से फरदे माल व जर तहरीर करती है,<br>कहीं यह हड्डियाँ चुन कर महल तामीर करती है।<br> गरीबों का मुकद्दस खून पी-पी कर बहकती है<br>महल में नाचती है रक्सगाहों में थिरकती है।<br> जिधर चलती है बर्बादी के सामां साथ चलते हैं,<br>नहूसत हमसफर होती है शैतान साथ चलते हैं।<br> यह अक्सर टूटकर मासूम इंसानों की राहों में,<br>खुदा के जमजमें गाती है, छुपकर खनकाहों में।<br> यह गैरत छीन लेती है, हिम्मत छीन लेती है,<br>यह इंसानों से इंसानों की फतरत छीन लेती है।<br> गरजती, गूँजती यह आज भी मैदाँ में आती है,<br>मगर बदमस्त है हर हर कदम पर लडखडाती है।<br> मुबारक दोस्तों लबरेज है इस का पैमाना,<br>
उठाओ आँधियाँ कमजोर है बुनियादे काशाना।
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