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(मनोहर श्याम जोशी के लिए)आप आप आपआप सबजिन्हें मैं समझता हूँ कुछसिर्फ इतना बताएँ कृपाकरमैंऐसा क्या करूँकि अपने को आत्महत्यारों की हत्या मेंशरीक न समझूँ
देह के रोमछिद्रों कम से भी अधिक द्वार हैंकमजीवन केआप सब को तोबिल्कुलअभी-अभीकिसने यह कही बहुत पुरानी सीहमजादों की लड़ाई मेंकोई एक जीतता हैजरूर हम कभीअपने हमजाद के दोस्त ही नहीं होतेअपनी युवा इंद्रियों के साथखड़ा हूँजीवन के दरवाजों पर कोईमेरी सहजताओं का दुश्मन हैखींच लेता है मुझेइसकी देहरियों के भीतर से बाहर हजारवीं बार... लाखवीं बार...देह के रोमछिद्रों से भी अधिक द्वार हैंजीवन के, परअभी-अभी किसी ने बताया है -हमजादों की लड़ाई में कोई एक जीतता हैजरूर हम कभी अपने हमजाद के दोस्त नहीं होते ('हमजाद ' मनोहर श्याम जोशी जी का उपन्यास भी है जिसमें व्यक्ति के साथ ही उसके भीतर उत्पन्न होने वाले एक प्रतिगामी व्यक्ति को ' हमजाद ' कहा गया है उपन्यास में इसे जिन दो अलग - अलग चरित्रों के माध्यम से दिखाया गया है वे दोनों ही प्रतिगामी हैं और एक - दूसरे के पूरक हैं)