|रचनाकार=कुँअर बेचैन
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उँगलियाँ थाम के खुद चलना सिखाया था जिसे
राह में छोड़ गया राह पे लाया था जिसे
उँगलियाँ थाम के उसने पोंछे ही नहीं अश्क मेरी आँखों सेमैंने खुद चलना सिखाया था जिसे<br>राह में छोड़ गया राह पे लाया रोके बहुत देर हँसाया था जिसे <br><br>
उसने पोंछे ही नहीं अश्क मेरी आँखों बस उसी दिन से<br>खफा है वो मेरा इक चेहरामैंने खुद रोके बहुत देर हँसाया धूप में आइना इक रोज दिखाया था जिसे <br><br>
बस उसी दिन से खफा है छू के होंठों को मेरे वो मेरा इक चेहरा<br>भी कहीं दूर गईधूप में आइना इक रोज दिखाया गजल शौक से मैंने कभी गाया था जिसे <br><br>
छू के होंठों को मेरे दे गया घाव वो भी कहीं दूर गई<br>ऐसे कि जो भरते ही नहींइक गजल शौक अपने सीने से मैंने कभी गाया मैंने लगाया था जिसे<br><br>
दे गया घाव वो ऐसे होश आया तो हुआ यह कि जो भरते ही नहीं<br>मेरा इक दुश्मनअपने सीने से कभी याद फिर आने लगा मैंने लगाया भुलाया था जिसे <br><br>
होश आया तो हुआ यह कि मेरा इक दुश्मन<br>याद फिर आने लगा मैंने भुलाया था जिसे <br><br> वो बड़ा क्या हुआ सर पर ही चढ़ा जाता है<br>मैंने काँधे पे `कुँअर' हँस के बिठाया था जिसे<br><br>