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|रचनाकार=कन्हैयालाल नंदन
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<poem>
चौंको मत मेरे दोस्त
अब जमीन किसी का इंतजार नहीं करती।
पांच साल का रहा होऊँगा मैं,
जब मैंने चलती हुई रेलगाड़ी पर से
ज़मीन को दूर-दूर तक कई रफ्तारों में सरकते हुये देखकर
अपने जवान पिता से सवाल किया था
कि पिताजी पेड़ पीछे क्यों भाग रहे हैं?
हमारे साथ क्यों नहीं चलते?
जवाब में मैंने देखा था कि
मेरे पिताजी की आँखें चमकी थीं।
और वे मुस्करा कर बोले थे,बेटा!
पेड़ अपनी जमीन नहीं छोड़ते।
और तब मेरे बालमन में एक दूसरा सवाल उछला था
कि पेड़ ज़मीन को नहीं छोड़ते
या ज़मीन उन्हें नहीं छोड़ती?
चौंको मत मेरे दोस्त<br>सवाल बस सवाल बना रह गया था,अब जमीन किसी का इंतजार नहीं करती।<br>पांच साल का रहा होऊँगा और मैं,<br>जवाब पाये बगैरजब मैंने चलती हुई रेलगाड़ी पर खिड़की से<br>बाहरज़मीन तार के खंभों को दूर-दूर तक कई रफ्तारों पास आते और सर्र से पीछेसरक जाते देखने में सरकते हुये देखकर<br>डूब गया था।अपने जवान पिता से सवाल किया तब शायद यह पता नहीं था<br>कि पिताजी पेड़ पीछे क्यों भाग रहे हैं?<br>भले छूट जायेंगेहमारे साथ क्यों सवाल से पीछा नहीं चलते?<br>छूट पायेगा।जवाब हर नयी यात्रा में मैंने देखा था कि<br>मेरे पिताजी की आँखें चमकी थीं।<br>और वे मुस्करा कर बोले थे,बेटा!<br>पेड़ अपनी जमीन नहीं छोड़ते।<br>और तब मेरे बालमन में एक दूसरा सवाल उछला था<br>कि पेड़ ज़मीन अपने को नहीं छोड़ते<br>या ज़मीन उन्हें नहीं छोड़ती?<br><br>दुहरायेग।
सवाल बस सवाल बना रह गया थाबूढ़े होते होते मेरे पिता नेएक बार,<br>मुझसे और मैं जवाब पाये बगैर<br>कहा था किखिड़की से बाहर<br>बेटा ,मैंने अपने जीवन भरतार के खंभों को पास आते और सर्र से पीछे<br>सरक जाते देखने में डूब गया था।<br>तब शायद यह पता अपनी ज़मीन नहीं था<br>छोड़ीकि पेड़ पीछे भले छूट जायेंगे<br>हो सके तो तुम भी न छोड़ना।सवाल से पीछा नहीं छूट पायेगा।<br>और इस बार चमक मेरी आँखों में थीहर नयी यात्रा में अपने को दुहरायेग।<br><br>जिसे मेरे पिता ने देखा था।
बूढ़े होते होते मेरे पिता ने<br>रफ्तार की उस पहली साक्षी से लेकरएक बार,<br>इन पचास सालों के बीच की यात्राओं मेंमुझसे और कहा था कि<br>बेटा ,मैंने हजा़रों किलोमीटर ज़मीन अपने जीवन भर<br>अपनी ज़मीन नहीं छोड़ी<br>हो सके तो तुम भी न छोड़ना।<br>और इस बार चमक मेरी आँखों में थी<br>पैरोंजिसे मेरे पिता ने देखा था।<br><br>के नीचे से सरकते देखी है।
रफ्तार की उस पहली साक्षी हवा-पानी के रास्तों से लेकर<br>चलते दूर,इन पचास सालों ज़मीन का दामन थामकर दौड़ते हुए भीअपनी यात्रा के बीच की यात्राओं हर पड़ाव पर नयी ज़मीन से ही पड़ा है पालाज़मीन जिसे अपनी कह सकें,उसने कोई रास्ता नहीं निकाला।कैसे कहूँ किविरसे में<br>मैंने यात्राएँ ही पाया हैऔर पिता का वचन जब-जब मुझे याद आया हैमैंने हजा़रों किलोमीटर ज़मीन अपने पैरों<br>अपनी जमीन के मोह में सहा हैवापसी यात्राओं का दर्द।और देखाकि अपनी बाँह परलिखा हुआ अपना नाम अजनबी की तरहमुझे घूरने लगा,अपनी ही नसों का खूनमुझे ही शक्ति से देने से इंकार करने लगा।तब पायाकि निर्रथक गयीं वे सारी यात्राएँ।अनेक बार बिखरे हैं ज़मीन से जुड़े रहने के नीचे सपनेऔर जब भी वहाँ से सरकते देखी है।<br><br>लौटा हूँ,हाथों में अपना चूरा बटोर कर लौटा हूँ!
हवा-पानी के रास्तों से चलते दूर,<br>ज़मीन का दामन थामकर दौड़ते हुए भी<br>अपनी यात्रा के हर पड़ाव पर नयी ज़मीन से ही पड़ा है पाला<br>ज़मीन जिसे अपनी कह सकें,<br>उसने कोई रास्ता नहीं निकाला।<br>कैसे कहूँ कि<br>विरसे में मैंने यात्राएँ ही पाया है<br>और पिता का वचन जब-जब मुझे याद आया है<br>मैंने अपनी जमीन के मोह में सहा है<br>वापसी यात्राओं का दर्द।<br>और देखा<br>कि अपनी बाँह पर<br>लिखा हुआ अपना नाम अजनबी की तरह<br>मुझे घूरने लगा,<br>अपनी ही नसों का खून<br>मुझे ही शक्ति से देने से इंकार करने लगा।<br>तब पाया<br>कि निर्रथक गयीं वे सारी यात्राएँ।<br>अनेक बार बिखरे हैं ज़मीन से जुड़े रहने के सपने<br>और जब भी वहाँ से लौटा हूँ,<br>हाथों में अपना चूरा बटोर कर लौटा हूँ!<br><br> सुनकर चौंको मत मेरे दोस्त!<br>अब ज़मीन किसी का इंतज़ार नहीं करती।<br>खुद बखुद खिसक जाने के इंतज़ार में रहती है<br>ज़मीन की इयत्ता अब इसी में सिमट गयी है<br>कि कैसे वह<br>पैरों के नीचे से खिसके<br>ज़मीन अब टिकाऊ नहीं<br>बिकाऊ हो गयी है!<br>टिकाऊ रह गयी है<br>ज़मीन से जुड़ने की टीस<br>टिकाऊ रह गयी हैं<br>केवल यात्राएँ…<br>यात्राएँ…<br>
और यात्राएँ…!
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