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09:34, 15 अगस्त 2013 {{KKGlobal}}
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| रचनाकार= इरशाद खान सिकंदर
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<poem>
बेख़ुदी कुछ इस क़दर तारी हुई
सांस तक लेने में दुश्वारी हुई
ख़्वाब सारे रेज़ा-रेज़ा हो गये
सब उमीदें हैं थकी-हारी हुई
हम हैं आदत के मुताबिक़ मुन्तज़र
आपकी इमदाद सरकारी हुई
हाल क्या पूछा किसी हमदर्द ने
आँसुओं की नह्र सी जारी हुई
होश भी उनकी गली में रह गया
अक़्ल की तो अक़्ल है मारी हुई
</poem>