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15:11, 17 अगस्त 2013 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=सलमान अख़्तर
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<poem>
जागते में भी ख़्वाब देखे हैं
दिल ने क्या क्या अज़ाब देखे हैं
आज का दिन भी वो नहीं जिस के
हर घड़ी हम ने ख़्वाब देखे हैं
दूसरे की किताब को न पढ़ें
ऐसे अहल-ए-किताब देखे हैं
क्या बताएँ तुम्हें के दुनिया में
लोग कितने ख़राब देखे हैं
झाँकते रात के गिरेबाँ से
हम ने सौ आफ़ताब देखे हैं
हम संदर पे दौड़ सकते हैं
हम ने इतने सराब देखे हैं
</poem>
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