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06:55, 18 अगस्त 2013 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार='महशर' इनायती
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<poem>
बे-रंग थे आरज़ू के ख़ाके
वो देख रहे हैं मुस्कुरा के
ये क्या है के एक तीर-अंदाज़
जब तसके हमारे दिल को ताके
अब सोच रहे हैं किस का दर था
हम सँभले ही क्यूँ थे डगमगा के
इक ये भी अदा-ए-दिलबरी है
हर बात ज़रा घुमा फिरा के
दिल ही को मिटाएँ अब के दिल में
पछताए हैं बस्तियाँ बसा के
हम वो के सदा फ़रेब खाए
ख़ुश होते रहे फरेब खा के
छू आई है उन की ज़ुल्फ ‘महशर’
अंदाज़ तो देखिए सबा के
</poem>
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