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10:43, 18 अगस्त 2013 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार='सुहैल' अहमद ज़ैदी
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नवाह-ए-जाँ में कहीं अबतरी सी लगती है
सुकून हो तो अजब बे-कली सी लगती है
इक आरज़ू मुझे क्या क्या फ़रेब देती है
बुझे चराग़ में भी रौशनी सी लगती है
गई रूतों के तसर्रूफ़ में आ गया शायद
अब आँसुओं में लहू की कमी सी लगती है
उसी को याद दिलाता है बार बार दिमाग़
वो एक बात जो दिल में अनी सी लगती है
कि रोज़ एक नया गुल खिलाती रहती है
ये कायनात किसी की गली सी लगती है
कभी तो लगता है गुमराह कर गई मुझ को
सुख़न-वरी कभी पैग़म्बरी सी लगती है
जनाब-ए-शैख़ की महफ़िल से उठ चलो कि ‘सुहैल’
यहाँ तो नब्ज़-ए-दो-आलम रूकी सी लगती है
</poem>
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