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03:10, 26 अगस्त 2013 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार='बाकर' मेंहदी
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<poem>
ख़ून का हर इक क़तरा जैसे
दीमक बन कर दौड़े
नाकामी के ज़हर को चाटे
दर्द में घुलता जाए
छलनी जिस्म से रिसते लेकिन
अरमानों के रंग
जिन का रूप में आना मुश्किल
और जब भी अल्फ़ाज़ में ढल कर
काग़ज़ पर बह निकले
ख़ाके तस्वीरों के बनाए
आँखें तारे हाथ शुआएँ
दिल का सदफ़ है जिस मे
कितने सच्चे मोती भरे हुए हैं
बाहर आते ही ये मोती
शबनम बन कर उड़ जाते हैं
जैसे अपना खोया सूरज ढूँढ रहे हैं
मैं अपने अंजाम से पहले
शायद इक दिन
इन ख़ाकों में रंग भरूँगा
ये भी तो मुमकिन है लेकिन
मैं भी इक ख़ाका बन जाऊँ
जिस को दीमक चाट रही हो
</poem>
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