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15:49, 27 अगस्त 2013 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=कामी शाह
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<poem>
अगर कार-ए-मोहब्बत में मोहब्बत रास आ जाती
तुम्हारा हिज्र अच्छा था जो वसलत रास आ जाती
गला फाड़ा नहीं करते रफ़ू दरयाफ़्त करने में
अगर बेकार रहने की मशक़्क़त रास आ जाती
तुम्हें सय्याद कहने से अगर हम बाज़ आ जाते
हमें भी इस तमाशे में सुकूनत रास आ जाती
फ़क़त ग़ुस्सा पिए जाते हैं रोज़ ओ शब के झगड़ में
कोई हँगाम कर सकते जो वहशत रास आ जाती
अगर हम पार कर सकते ये अपनी ज़ात का सहरा
तो अपने साथ रहने की सहूलत रास आ जाती
</poem>
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