|रचनाकार=द्विजेन्द्र 'द्विज'
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[[Category:ग़ज़ल]]{{KKCatGhazal}}<poem>नाम पर तहज़ीब—ओ—मज़हब तहज़ीब-ओ-मज़हब के मचा हुड़दंग है
आदमी की आदमी से ही छिड़ी अब जंग है
रोज़ हंगामों से अपना शहर सारा दंग है
और बचने का यहाँ हर रास्ता भी तंग है
रोज़ हंगामों से अपना शह्र सारा दंग है और बाचने का यहाँ हर रास्ता भी तंग है दे रहा है मश्विरे मशविरे वो घर सजाने के हमें
शख़्स, जिसके अपने घर का रंग ही बदरंग है
ढूँढने होंगे नये कुछ शस्त्र अब जा कर कहीं
सब पुराने आयुधों में लग चुकी अब ज़ंग है
वो क़लम की छ्टपटाहट पर करेंगे टिप्पणी
भावना से हैं अपिरिचित, सोच को अरधंग है
‘द्विज’! कहो ग़ज़लें सुहानी, गीत गाओ धूप के
रात की काली सियाही का भयानक रंग है
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