|रचनाकार=रति सक्सेना
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
चीते की तरह लपकते हुए, उसने
शिकार को इस तरह चबाया कि
न चीख सुनाई दी, न ही रुदन
बस एक घुरघुराहट,
मरती हुई साँसो से
चीते की तरह लपकते हुए, उसने <br>अब उसके दाँतो के बीच हैशिकार को इस तरह चबाया साबुत कि<br>साबुत मकानन चीख सुनाई दी, न ही रुदन<br>जिसे बेच कर बस अभी-अभी गया था एक घुरघुराहट, <br>मरती हुई साँसो से<br><br>परिवार
अब उसके दाँतो आवाजों के बीच गुच्छे मेंअचानक सुनाई देती है<br>साबुत कि साबुत मकान<br>रसोई घर के बर्तनो की छनछनाहटकड़ाई में चलती करछुलजिसे बेच कर <br>कूकर की सीटीअभी-अभी गया था एक परिवार<br><br>और सब्जियों की नीन्द
आवाजों के गुच्छे में<br>यह आवाज शायद उनके अचानक सुनाई देती है <br>रसोई घर के बर्तनो शयन कक्ष की छनछनाहट<br>ही होगीकड़ाई में चलती करछुल<br>यहाँ टूटती चूड़ियाँ हैंकूकर तकिये की सीटी<br>खसखसाहटें हैऔर सब्जियों की नीन्द<br><br>भी बहुत कुछजिसे बयान नहीं किया जा सकता
यह आवाज शायद उनके <br>बच्चों के कमरे मेंशयन कक्ष की ही होगी<br>यहाँ टूटती चूड़ियाँ कच्ची अमिया सी खिलखिलाहटें हैं<br>तकिये की खसखसाहटें है<br>झरबेरी सी कनफुसियाँ हैं और भी बहुत कुछ<br>ऐसाजिसे बयान हम सुनना नहीं किया जा सकता<br><br>चाहते
बच्चों के कमरे में<br>घर को पूरा कि पूरा निगल कच्ची अमिया सी खिलखिलाहटें हैं<br>अब थक कर बैठा ही है झरबेरी सी कनफुसियाँ हैं <br>कि सारी कि सारी आवाजेंऔर भी बहुत कुछ ऐसा<br>उसके मुँह से निकल करजिसे हम सुनना नहीं चाहते<br><br>मेरी खिड़की पर आ बैठीं
घर को पूरा कि पूरा निगल <br>अब थक कर बैठा ही है <br>कि सारी कि सारी आवाजें<br>उसके मुँह से निकल कर<br>मेरी खिड़की पर आ बैठीं<br><br> " घर के साथ ना जाने क्या <br>बेच गए, जाने वाले" <br>
मैंने आवाजों के लिए दरवाजा खोल दिया।
</poem>