|रचनाकार=रति सक्सेना
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{{KKCatKavita}}<poem>जब भी पछुआ चला करती<br>माँ की गुनगुनाहट बरस<br>झप्प-झप्प बुझने लगती<br>मरुस्थली रेत पर,<br>कम हो जाती उमस<br>बन्द कमरे की<br>आज भी जब आसमान<br>तप कर चूने लगता है<br>मेरे कानों में लहराने लगती हैं<br>माँ के गीत की लहरियाँ<br>सागर के हाथ उठ जाते हैं ऊपर<br>बरसने लगते हैं गीत झनाझन<br>मेरे होंठों से <br>
माँ के निश्वास बन।
</poem>