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|रचनाकार=रति सक्सेना
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उसने सोचा
 
"मैं पहाड़ बनूंगा"
 
तमाम ढेलों के ढेर पर खड़े हो
 
हाथ फैलाए ओस बन्द हो गई मुठ्ठी में
 
वह सोचने लगा
 
बन्द हो गई समन्दर की क़िस्मत
 
उसने साँस खींची
 
जकड़ ली तमाम ज़िन्दगियाँ
 
उसे लगा कि वह पहाड़ हो गया
 
दोस्ती हुई हरियाली से
 
बादलों से चुहुलबाज़ी
 
सिर पर बुलन्दियों का सेहरा
 
हल्की-सी हवा क्या चली
 
वहाँ पड़ा था फिर से ढेलों का ढेर।
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