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|रचनाकार=रति सक्सेना
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उस बुढ़िया का पेट
 
बातों का ढोल
 
इधर बतियाती
 
उधर गपियाती
 
बिता देती इतना वक़्त कि
 
अकेलापन
 
बिना दरवाज़ा खटखटाए
 
सरक जाता चुपचाप
 
एक दिन बुढ़िया चुप थी
 
सूरज आया
 
बुढ़िया बोली नहीं
 
चांद खिला
 
बुढ़िया चुप थी
 
हवा, फूल, चींटीं, केंचुआ
 
सभी आकर चले गए
 
बुढ़िया को न बोलना था, न बोली
 
कहते हैं उसी दिन
 
दुनिया और नरक के बीच की दीवार
 
भड़भड़ा कर गिर पड़ी
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