|रचनाकार=भगवतीचरण वर्मा
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तुम मृगनयनी, तुम पिकबयनी<br>तुम छवि की परिणीता-सी,<br>अपनी बेसुध मादकता में<br>भूली-सी, भयभीता सी ।<br><br>
तुम उल्लास भरी आई हो<br>तुम आईं उच्छ्वास भरी,<br>तुम क्या जानो मेरे उर में<br>कितने युग की प्यास भरी ।<br><br>
शत-शत मधु के शत-शत सपनों<br>की पुलकित परछाईं-सी,<br>मलय-विचुम्बित तुम ऊषा की<br>अनुरंजित अरुणाई-सी ;<br><br>
तुम अभिमान-भरी आई हो<br>अपना नव-अनुराग लिए,<br>तुम क्या जानो कि मैं तप रहा<br>किस आशा की आग लिए ।<br><br>
भरे हुए सूनेपन के तम<br>में विद्युत की रेखा-सी;<br>असफलता के पट पर अंकित<br>तुम आशा की लेखा-सी ;<br><br>
आज हृदय में खिंच आई हो<br>तुम असीम उन्माद लिए,<br>जब कि मिट रहा था मैं तिल-तिल<br>सीमा का अपवाद लिए ।<br><br>
चकित और अलसित आँखों में<br>तुम सुख का संसार लिए,<br>मंथर गति में तुम जीवन का<br>गर्व भरा अधिकार लिए ।<br><br>
डोल रही हो आज हाट में<br>बोल प्यार के बोल यहाँ,<br>मैं दीवाना निज प्राणों से<br>करने आया मोल यहाँ ।<br><br>
अरुण कपोलों पर लज्जा की<br>भीनी-सी मुस्कान लिए,<br>सुरभित श्वासों में यौवन के<br>अलसाए-से गान लिए ,<br><br>
बरस पड़ी हो मेरे मरू में<br>तुम सहसा रसधार बनी,<br>तुममें लय होकर अभिलाषा<br>एक बार साकार बनी ।<br><br>
तुम हँसती-हँसती आई हो<br>हँसने और हँसाने को,<br>मैं बैठा हूँ पाने को फिर<br>पा करके लुट जाने को ।<br><br>
तुम क्रीड़ा की उत्सुकता-सी,<br>तुम रति की तन्मयता-सी;<br>मेरे जीवन में तुम आओ,<br>तुम जीवन की ममता-सी।<br><br/poem>