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{{KKRachna
|रचनाकार=साहिर लुधियानवी
|संग्रह=
}}


कभी ख़ुद पे, कभी हालात पे रोना आया ।

बात निकली तो हर एक बात पे रोना आया ॥


हम तो समझे थे कि हम भूल गए हैं उन को ।

क्या हुआ आज, यह किस बात पे रोना आया ?


किस लिए जीते हैं हम, किसके लिए जीते हैं ?

बारहा ऎसे सवालात पे रोना आया ॥


कौन रोता है किसी और की ख़ातिर, ऎ दोस्त !

सब को अपनी ही किसी बात पे रोना आया ॥
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