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19:22, 4 नवम्बर 2007 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सविता सिंह
|संग्रह=नींद थी और रात थी
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गहरी काली रात सोई है उदिता जैसी
खोले अपने कपड़े अपने बाल बिस्तर में अकेली
मन में है न उसके कोई उलझन
कोई विषाद या फिर चाह
सो चुकी है रात पूरी एक नींद
खोल चुकी है आँख
बाहर सुन्दर लाल गोला सूरज का निकल चुका है
बाहों को हवा में ऊपर उठा लेती हुई सुखद एक अंगड़ाई
बदन को करती हुई सीधा
अपने कपड़े पहन रही है उदिता
सामने नीला आकाश बना है देखो
कितना बड़ा दर्पण देखने के लिए उसके
अपना यह सौन्दर्य