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<poem>होला कबो बहार त पतझड़ जमीन पर
लीला ई रोज देखेला अँखिगर जमीन पर

अँखिया में अँखिया डार के कहलें ऊ अनकहल
नेहिया के फूल खिल गइल बंजर जमीन पर

मोजर सिंगार देख के अइकत बा आम पर
रोपले बा जे बबुर के रसगर जमीन पर

धधकत चिता भरोस के देखत रहीले हम
चुपचाप अपना आस का मजगर जमीन पर

मजहब धरम के नाम का नफरत के बिस ह
ई आज के सवाल बा लम्हर जमीन पर

घर-घर में घर के रूप घरारी के मान बा
घर जे बनाई नेह का मजगर जमीन पर

आपन जे पेट काट के अनकर छुधा भरे
ऊहे सरग उतारेला ‘जौहर’ जमीन पर
</poem>
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