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काठी / सन्ध्या सिन्हा

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<poem>राताब्दियन से शिकार हो आइल बानी
तोहार रगड़ल, भोगल,
मसाला जर गइला पर
फेंक देहल काठी अइसन
बकिर हर बेर
तूँ काहें भुला जालऽ कि
मसाला काठिए प चढ़ल होला,
जेकरा एक रगड़ से जर जाला घर
जरि के छार हो जाला
-शहर-के-शहर
ऊ त हमहीं बानी,
जे अपना में आग समेटले
चुपाइल रहीला,
आखिर कुछुओ होखे
हम मेहररुए नू हईं
</poem>
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