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22:27, 20 अक्टूबर 2013 <poem>मृगमरीचिका ये संसार
बीहड़ बन
सुख-दुख का जाल
हाय! मैं बन-बन भटकी जाऊँ
जीवन-जीवन दौड़ी भागी,
कैसी पीड़ा ये मन लागी?
फूल-फूल से, बगिया-बगिया,
इक आशा में इक ठुकराऊँ।
रंग-बिरंग जीवन जंजाल,
सखि! मैं जीवन अटकी जाऊँ
हाय! मैं बन-बन भटकी जाऊँ
आड़े-तिरछे बुनकर आधे,
कितने इंद्रधनुष मन काते
सुख-दुख दो हाथों में लेकर
माया डगरी चलती जाऊँ
ये नाते रिश्तों के जाल
सखि! मैं डोरी लिपटी जाऊँ।
हाय! मैं बन-बन भटकी जाऊँ॥
रोती आँखें, जीवन सूना
देखे कब मन, जो है दूना?
पिछले द्वारे मैल बहुत है
संग बटोर सब चलती जाऊँ
पा कर भी सब मन कंगाल
सखि! किस आस में भटकी जाऊँ
हाय मैं बन-बन भटकी जाऊँ॥</poem>