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02:06, 24 अक्टूबर 2013 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=महेन्द्र मिश्र
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|संग्रह=
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<poem>मन राम को सुमिर ले दिन यों ही जा रहा है।
नेकी सबाब कर ले सिर काल छा रहा है।
दुनिया अजिब तमाशा जीने की नहीं आशा-
स्वासा अमोल दिन-दिन तू मुफ्त खो रहा है।
दिन चार का है डेरा चलना वहाँ सबेरा-
कोई तो आ रहा है कोई तो जा रहा है।
किस्ती तेरा पुराना तुमको है दूर जाना-
ये धर्म का खजाना नाहक डुबा रहा है
अब तो महेन्द्र जाना रहने का क्या ठेकाना-
सुरधाम अंत पाना यही-वेद गा रहा है।
</poem>
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