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02:20, 24 अक्टूबर 2013 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=महेन्द्र मिश्र
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|संग्रह=
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<poem> तुम तो पिया सुरलोक चले मेरी नइया खेवइया तो कोई नहीं।
लंका में डंका बजी सगरी मोरा दुख के सुनइया तो कोई नहीं।
तेरा सुख में तो साथी हजारों मिले मगर दुख में मिलइया तो कोई नहीं।
हजारों वरछी लगी है तन में ये पीरा हरैया तो कोई,
तुझे मखमल क तकिया हजारो लगी कभी बाहों के तकिया पर सोए नहीं,
आज भुइयाँ में लोटे हो प्यारे सही ये मुसीबत के साथी तो कोई नहीं।
जहाँ लाखों सभा में हँसइया रहे आज एको वहाँ पर रोवइया नहीं,
आज मुँह पर हैं लोहू के छींटे पड़े मुंह पर माछी उड़इया भी कोई नहीं।
तू शरण रमचन्दर के होवे नहीं सिवा उनके अब तेरा तो कोई कोई नहीं,
अब तो सिन्दूर की सोभा हमारी गई मेरी लज्या बचइया भी कोई।
अब तो विधवा महेन्दर बना ही दिया मुझे सुख के देवैया तो कोई नहीं,
दीया बाती देखइया भी कोई नहीं मेरा धरम बचइया भी कोई नहीं।
</poem>