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02:20, 24 अक्टूबर 2013 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=महेन्द्र मिश्र
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|संग्रह=
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<poem> रात भर झगड़े में उनसे गुफ्तगूँ होता रहा,
भोर जब हो गए तो सारा गिला जाता रहा।
खुशनुमाँ आवाज शीरीं कुछ न कुछ गाता रहा,
पहले थी जितनी कुदूरत सभ निकल जाता रहा।
गुहरे-खामोशी खुली फिर कुछ न कुछ बकता रहा,
यार कमसिन है अभी सुन-सुन के घबड़ाता रहा।
लाख समझाया है मैंने फिर भी झुँझलाता रहा,
फिर मोहब्बत का असर कुछ चोटे दिल खाता रहा।
ले लिया जो हमने बोशा यार शरमाता रहा,
हो गया अब तो बसेरा हम जुदा हो जायेंगे।
चुटकियाँ गम ले रहा अब दिल भी घबड़ाता रहा
कहाँ महेन्दर ढूँढते हो क्या तेरा जाता रहा,
हम अकेले रह गये वो आशना जाता रहा।
</poem>