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01:41, 31 अक्टूबर 2013 <poem>एक सपना जी रही हूँ
पारदर्शी काँच पर से
टूट-बिखरे झर रहे कण
विहँसता सा खिल रहा है
आँख चुँधियाता हर इक क्षण
कुछ दिनों का जानकर सुख
मधु कलश सा पी रही हूँ
एक सपना जी रही हूँ
वह अपरिचित स्पर्श जिसने
छू लिया था मेरे मन को
अनकही बातों ने फिर धीरे
से खोली थी गिरह जो
और तब से जैसे हाला
जाम भर कर पी रही हूँ
एक सपना जी रही हूँ
इक सितारा माथ पर जो
तुमने मेरे जड़ दिया था
और भँवरा बन के अधरों
से मेरे रस पी लिया था
उस समय के मदभरे पल
ज्यों नशे में जी रही हूँ
एक सपना जी रही हूँ</poem>