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01:47, 31 अक्टूबर 2013 <poem>काश! रात ये लम्बी होती,
सुबह नही यूँ जल्दी होती।
सोमवार को सूरज भी गर
उठता, लेकिन आँख मीच कर,
अंगडाई लेता, सो जाता,
मुँह पर चादर और खींच कर।
किरणे भी झट बांह समेटे,
दुबक रजाई भीतर जातीं,
फिर से रजनी सपनों का तब
एक नया संसार सजाती।
एक अंचभित चिड़िया का,
नन्हा बच्चा ले कर पंखड़ाई,
कहता मम्मी आज सवेरे
से ही देखो बदली छाई।
रवि उठना जो भूल ही जाता,
तो किस्मत क्या अपनी होती...
काश रात ये लंबी होती,
सुबह नही यूं जल्दी होती।</poem>