{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=नरेश मेहता
}}
हमें जन्म देकर<br>{{KKPustakओ पिता सूर्य !<br>|चित्र= Aranyaa.jpgओ माता सविता ! <br>|नाम=अरण्या क्या इसलिए तुम मार्तण्ड हो कि<br>|रचनाकार=[[नरेश मेहता]]अब तुम प्रकाश के अतिरिक्त<br>|प्रकाशक=लोकभारती प्रकाशनऔर कुछ भी नहीं जन्म दे सकते ?<br>|वर्ष= १९८५मैं जानता हूँ तुम वामन हो<br>|भाषा=हिन्दीपर हिरण्यगर्भ तो हो<br>|विषय=कविताएँऔर हिरण्यगर्भ होने का तात्पर्य है<br>युगनद्ध शिव होना<br>पर लगता है उषा के सोम अभिषेक ने<br>तुम्हें सदा के लिए शम्भु बना दिया<br>तुम शक्ति हो चुके हो।<br>पर शायद सृष्टि को जन्म देने के उपरान्त<br>उसके पालन के लिए तुम प्रकाशरूप<br>विष्णु हो।<br><br> ओ पिता सूर्य !<br>हिरण्यगर्भ से वामन<br>और वामन से श्वेत वामन तारा बनने की<br>आकांक्षा में<br> ओ आदि हिरण्यगर्भ !<br>तुम ही महागणपति,<br>गणाधिपति कारणभूत महापिण्ड हो<br>तुम्हारा ही गण|शैली=-वैभव रूप<br>तारों की मन्दाकिनियों, आकाशगंगाओं के रूप में<br>पराब्रह्माण्डों में व्याप्त है<br>जैसे आकारातीत सूँड़ में सारे तारों के गण<br>लिपटे पड़े हों<br>और तुम आनन्दभाव से सिहरित होकर<br>शाश्वत ओंकार नाद कर रहे हो<br>जिसे हमारी पृथिवी, आकाश ही नहीं<br>हम सब अपने स्तत्व में सुनते हैं<br>तुम्हें प्रणाम है।<br><br> प्रत्येक अपने स्व का चक्र<br>प्रतिक्षण लगा रहा है<br>और इस गति की परम तेजी को<br>सामान्य भाव में नहीं देखा जा सकता<br>पर यह चन्द्रगति है<br>जिससे हमारे आकाश में प्रकम्पन उत्पन्न होता है<br>ताकि हमारी पृथिवी अपनी धुरी पर घूम सके<br>और धुरी-गति को स्वरूप मिल सके<br>यही धुरी-गति ही हमारी पृथिवी को<br>ऋतुमति बनाती है।<br>ऋतुमति धरती की यह ऋतुगति हमारे लिए<br>कितनी उत्सवरूपा है यह हम सब जानते हैं<br>पर शायद यह हम नहीं जानते कि<br>सूर्य हमारी इस पृथिवी को लेकर <br>और पृथिवी हमें लेकर<br>आकाशगंगा के केन्द्र की परिक्रमा पर<br>मन्वन्तर गति की गणनातीतता की ओर<br>भी धावित है<br>और क्या उस परायात्रा की हमें कोई प्रतीति है<br>कि हमारी नभगंगा अन्य मंदाकिनियों के साथ<br>|पृष्ठ=70अनावर्ती नक्षत्र|ISBN=-विस्तार की ब्रह्माण्डातीतता में <br>अपसर्पण गति ये यात्रा कर रही है ?<br>एक महाशेष नाग-यात्रा है<br>जिस पर जैविकता का विष्णु शेषाशायी है।<br><br> वह|विविध=-<br>जो सोया हुआ है<br>जाग भी रहा है अलख वही,<br>वह-<br>जो पुरुष है<br>अक्षतयोनि अपनी नारी भी है वही,<br>वह-<br>जो चिद्बिन्दु है<br>सारे प्रकाशों की<br>परम अन्धकार विराटता भी है वही,<br>वह-<br>जो शून्य है<br>समाहित हैं सारे संख्यातीत अंक वहीं,<br>वह-<br>जो अक्षर है<br>पद और अर्थ की सारी वर्णमाला भी है वही<br>वह-<br>जो परा अन्धकार है<br>सारे देश, सारे कालों के प्रकाश<br>नेत्र मूँदें हुए समाहित हैं वहीं।<br><br> यहाँ <br>जहाँ न प्रकाश है, न अन्धकार है<br>जबकि प्रकाश भी है और अन्धकार भी है<br>इसे भाषा कैसे अभिव्यक्त करे, कि<br>ताली दो हाथों से ही नहीं<br>एक हाथ से भी बजती है।<br><br> कोई ऐसा विश्वास करेगा कि<br>प्रकाश सुने जा सकते हैं<br>और ध्वनियाँ देखी जा सकती हैं<br><br> यहाँ इस परा अन्धकार में<br>अँधेरा अँधेरे को खोज रहा है।<br><br> इन परा ज्योतियों में प्रकाश अन्धे हो गये हैं<br><br> ब्रह्माण्ड के पराचुम्बकीय संकर्षण क्षेत्र<br>की महाज्योतियों का अत्यन्त नगण्य आलोक है<br>जो हम तक प्रकाश रूप में आता है।<br><br> प्रकाश भी लय है।<br><br> ब्रह्माण्डीय किरणों के सप्तवर्णी रंगमण्डल<br>वह<br>हाँ वह, जो युगनद्ध है<br>अर्धनारीश्वर है<br>जड़, चेतन औ गति की सघनतम युति के साथ<br>अपनी योगमाया में अवस्थित है।<br>वह महाशव<br>चिद्शक्ति के लास्य स्पर्श की प्रतीक्षा में<br>गणनातीत काल-यात्रा सम्पन्न कर निश्चेष्ट है।<br><br> सोने दो<br>महाशव बने इस चिद्बिन्दु को सोने दो।<br>ब्रह्माण्डों की पराविस्तृति में<br>कहीं भी, किसी में भी<br>न कहीं सूर्यों के भी सूर्य वाले तारे हैं<br>न कहीं नभगंगाएँ हैं<br>और न कहीं नक्षत्रमालिकाएँ ।<br>सारे प्रकाशों की मृत्यु हो चुकी है<br>सारी ध्वनियाँ पथरा चुकी हैं<br>महाकाल के इस पराकृष्णगर्त में<br>सारे व्योमकेशी देश और काल<br>नामहीन, आयुहीन, परिचितिहीन बन कर<br>न जाने कहाँ<br>न जाने किस देश और काल में बिला गये हैं।<br>अब केवल अन्धकार<br>परा अन्धकार<br>नहीं, परात्पर अन्धकार की ही सत्ता है<br>पराविराट परात्पर बिन्दु बना लेटा है<br>सोने दो<br>महाछन्द के इस गोलक को सोने दो।<br><br> जैसे ही सोने के लिए बत्ती बुझाई<br>और अँधेरा हुआ तो<br>सहसा पूरा दिन भी लौट आया<br>जैसे उसे घर लौटने में थोड़ी देर हो गयी थी<br><br> और वह सिर झुकाये अपराध भाव से खड़ा था।<br>पूरे दिन की घटनाएँ भी<br>खिलौने थामे बच्चों सी आ खड़ी हुईं।<br>उन्हें खेल-खेल में ध्यान ही नहीं रहा कि<br>इतनी रात हो गयी है<br>और घर भी लौटना है।<br>मैं उन सबको कुछ कहना चाहता था<br>पर सब केवल थके ही नहीं लग रहे थे<br>बल्कि उनकी आँखों में नींद घिरी पड़ रही थी<br>और मैंने हँसते हुए अपने में समेटा और सो गया।<br><br> आकाश के चरखे पर<br>बादलों की पूनियाँ काती जा रही हैं।<br>देखते नहीं<br>यह प्रभु नहीं<br>प्रभु की परात्परता है।<br>देखते नहीं<br>यह मूर्ति नहीं, लिंग है<br>जिसका पूजन नहीं अभिषेक किया जाता है।<br>जो स्वयं भी<br>सत्, रज, तम का बिल्वपत्र है<br>त्रिकाल ही जिसका त्रिपुण्ड है<br>सृष्टि की परागतियाँ जिसके कण्ठ में नाग हैं<br>जो महायोनि में अवस्थित होकर अट्टहास कर रहा है<br>पर अभी वह केवल पिण्ड है<br>चिद्बिन्दु है।<br>देखते नहीं<br>इस योगमाया निद्रा में<br>केवल प्रलय का अधिकार<br>पार्षद बना जाग रहा है।<br>सारे प्रकाशों पर आरूढ़<br>यह नामहीन, रूपहीन प्रलय का पार्षद ही<br>जाग रहा है।<br>किसी की भी कोई सत्ता नहीं<br>केवल वह चिद्बिन्दु ही है,<br>लेकिन कहाँ ?<br>जब कोई देश और काल ही नहीं है<br>तब यह कहाँ, क्या !!<br><br> महाशून्य के कृष्ण के चारों ओर<br>अनन्त नभगंगाओं, तारा-मण्डलों की गोपिकाएँ<br>ज्योति का महारास कर रही हैं<br><br> प्रकाश के सप्त सोपान ही सप्त आकाश हैं।<br><br> कौन अपनी परासंकर्षण शक्ति से<br>प्रकाश-अश्वों की महागतियों पर वल्गा लगा देता है ?<br><br> कौन परासंकर्षण का जाल फेंक कर<br>प्रकाश और ज्योतियों की मछलियों को समेट रहा है ?<br><br>}}
कृष्णगर्त सारे प्रकाशों और ज्योतियों को पी डाल रहा है<br>कृष्णगर्त के इस महाराक्षस के उदर-विविर में समा कर<br>गणनातीत वर्षों के बाद<br>ये प्रकाश, ज्योतियाँ, ध्वनियाँ<br>किस ब्रह्माण्ड में<br>भूत या भविष्य के किस काल में कब मुक्त होंगी<br>यह कौन जानता है ?<br>* [[पुरुष (कविता) / नरेश मेहता]]