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क्यूं / हरीश बी० शर्मा

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<poem>थारै खुद रा सबदां नैं
परोटतां
थारै दिखायोड़ै
दरसावां माथै
नाड़ हिलांवतां ई जे
म्हारा जलमदिन निकळना हा
फेरूं क्यूं दीन्ही
म्हनैं रचण री ऊरमा?
साम्हीं मूंढै म्हासूं बात नीं करणिया
थारै परपूठ एक ओळभो है-
कीं तो म्हारै रचण अर सिरजण पेटै ई
‘कोटो’ राखतो।</poem>
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