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11:14, 24 दिसम्बर 2013 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रमेश 'कँवल'
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क़ुरबत की तल्खियों से पिघलने लगी है शाम
अब फ़ासलों के शहर में ढलने लगी है शाम
शोहरत की धूप छत की बुलंदी में खो गर्इ
शबनम की बूंद-बूंद से जलने लगी है शाम
महफ़िल में बोलता था बहुत, शख़्स खोखला
यह राज खोलने को उछलने लगी है शाम
दिल्ली का शाप-माल हो या शामे-लखनउ
अल्हड़ कुंवारियों सी मचलने लगी है शाम
ग़ज़लों की ताजगी से सराबोर है 'कँवल'
शेरों के फ़िक्रो-फ़न में उबलने लगी है शाम
</poem>