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13:11, 27 दिसम्बर 2013 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रमेश 'कँवल'
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<poem>
नुक़्करई1 उजाले पर सुरमर्इ अंधेरा है
यानी मेरी क़िस्मत को गर्दिशों ने घेरा है
वक़्त ने जुदार्इ के ज़ख़्म भर दिये लेकिन
ज़ख़्म की कहानी भी वक़्त का ही फेरा है।
टूटते बिखरते इन हौसलों को समझाओ
उलझनों की शाख़ों पर लज़्ज़तों का डेरा है
आने वाला सन्नाटा मस्तियाँ उड़ा देगा
नागिनो! संभल जाओ सामने सपेरा है
मछलियों की बस्ती में कितना प्यारा मौसम है
जाल भी नहीं कोर्इ और नही मछेरा है
आप ही सी इक मूरत फिर है दिल के मंदिर में
आपकी अदाओं का दिल में फिर बसेरा है .
क्यों 'कंवल’ को समझे हो रात की अलामत2 तुम
वो तो एक सूरज है,चंपर्इ सवेरा है।
1.चांदी सदृष 2. चिन्ह-लक्षण
</poem>