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13:59, 8 फ़रवरी 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रमेश 'कँवल'
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आज भी मेरा दामन खाली, आज भी दिल वीरान
वक़्त सजाये आज भी बैठा है रंगीन दुकान
फ़ौजी बूटों से घायल गांव की पगडंडी
पर एक कुंवारी ढूंढ रही है दो पैरों के निशान
जाम के बदले मयख़ाने में चलती हैं तलवारें
साक़ी दूर खड़ा है गुमसुम और ख़ुदा हैरान
कैसा है ये दौरे-तरक़्क़ी क्या इसकी सौग़ात
हथियारों की क़ीमत ऊँची सस्ता है इन्सान
जाने किसकी आस में खोये हैं गोरी के नैन
गली ख़मोश, उदास मुंडेरे, आंगन है सुनसान
सारी ख़ुदार्इ प्रीत की दुश्मन है मेरे महबूब
रूठ गये जो तुम भी मुझ से रहन सकेंगे प्राण
आवारों सा भटक रहा हूं गलियों में मैं आज 'कंवल’
अहले-नज़र1 महवे-हैरत2 हैं कौन है ये इन्सान
1. पारखीलोग 2. चकित-विस्मित
</poem>