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15:49, 8 फ़रवरी 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रमेश 'कँवल'
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<poem>
क्या कशिश थी तेरे बहाने में
लुत्फ़ आया फ़रेबखाने में
आतिशे-ग़म1 न मिलस की वरना
क्या था खूने-जिगर2 जलाने में
जुस्तजू में तेरी हुआ हूं गुम
ये मिला मुझको दिल लगाने में
चार तिनकों का हश्र क्या कहिये
लग गर्इ आग आशियाने में
तेरे ग़म का भी बोझ ढो लेता
हाय मजबूर हूं ज़माने में
वो पशेमां से हो गये सुनकर
बात क्या थी मेरे फ़साने में
तुम 'कंवल' को सता लो जी भर के
ये तो यकता3 है ग़म उठाने में
1. दुखकीआग 2. यकृतकीरक्त 3. अद्वितीय ।
</poem>
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