1,506 bytes added,
16:12, 8 फ़रवरी 2014 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=रमेश 'कँवल'
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
हर पल संवरने सजने की फ़ुरसत नहीं रही
अब मुझको आइने की ज़रूरत नहीं रही
मिलने पे यूँ बिछुड़ने का अहसास हीन था
बिछुड़े तो कभी मिलने की कि़स्मत नहीं रही
आंखों में एडस होने का है खौफ़ इस तरह
अब बेवफ़ाई की कोर्इ सूरत नहीं रही
हम दर्दी की वो धूम है राहत की राह पर
'कोसी’ को कोसने में भी लज़्ज़त नहीं रही
अब मुंतजि़र नहीं हूं मैं खिड़की से धूप का
अच्छा है मेरे सर पे कोर्इ छत नहीं रही
लुत्फ़ो-करम है दौलते-इफ़्लास का यही
महफ़िल में मेरी इज़्ज़तो-शोहरत नहीं रही
उसके बदन की गंध मुझे भागर्इ 'कंवल’
अब खुशबुओं की मंडी की चाहत नहीं रही
</poem>
Delete, Mover, Reupload, Uploader