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कीकर / कविता वाचक्नवी

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वर्तनी व फॉर्मेट सुधार
बीनती हूँ
:: कंकरी
औ’ बीनती हूँ
:: झाड़ियाँ बस
नाम ले तूफान का
:: तुम यह समझते।  
::: थी कँटीली शाख
:::मेरे हाथ में जब,
:::और कुछ भी
:::क्या कहूँ मैं।
 
फिर
न जाने कब
चुभन औ’ घाव खाई
सुगबुगातीसुगबुगातीं
हाथ की
वे दो हथेली
"चूम लो
अच्छा लगेगा"
::: तुम चूम बैठे
घाव थे
सब अनदिखे वे
आज
आ-रोपित किया है
::: पेड़ कीकर का 
मेरे
मन-मरुस्थल में
जब तुम्हीं ने,
क्या भला-
अब चूम
चुभती लाल बूँदें
पोर की
पीड़ा हमारी?
 
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'''बबुर'''
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