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मैं तुम्हारी तुम हमारेतब किसी की याद आती!
नयन में निज नयन भर पेट का धन्धा खत्म करअधर लौटता हूँ साँझ को घरबन्द घर पर सुमधुर अधर धरसाध कर स्वर, साध कर उरएक दिन तुमने कहा था प्रेम-गंगा के किनारे।बन्द ताले पर थकी जब आँख जाती।मैं तुम्हारी तुम हमारेतब किसी की याद आती!
था कथित उर-प्यार हारारात गर्मी से झुलसकरमौन था संसार साराआँख जब लगती न पलभरसुन रहा था सरित-जल, सब मुस्कुराते चाँदऔर पंखा डुलडुलाकर बाँह थक-तारे।थक शीघ्र जाती।मैं तुम्हारी तुम हमारेतब किसी की याद आती!
अब कहीं तुम, मैं कहीं हूँअश्रु-कण मेरे नयन मेंअर्थ इसका मैं नहीं हूँऔर सूनापन सदन मेंशेष हैं वे शब्द, क्षत उर-स्वप्न, दो नयनाश्रु खारे।देख मेरी क्षुद्रता वह जब कि दुनिया मुस्कुराती।मैं तुम्हारी तुम हमारेतब किसी की याद आती!
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