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लथेड़ / हरिऔध

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<poem>
हैं बहुत बच्चे भटकते फिर रहे। 
औरतें भी ठोकरें हैं खा रही।
 
अब भला परदा रहेगा किस तरह।
 
जो उठेगा आँख का परदा नहीं।
वे बिचारी फूल जैसी लड़कियाँ।
 
जो नहीं बलिदान होते भी अड़ीं।
 आँखवाले हम तुम्हें वै+से कैसे कहें। 
जब न आँखें आज तक उन पर पड़ीं।
बेबसी बेबिसात बेवों की।
 
सामने जब बिसूरती आई।
 
सिर गया घूम, बन गये बुत हम।
 
बात मुँह से नहीं निकल पाई।
देख कर नीच हाथ से नुचती।
 
एक खिलती हुई अबोल कली।
 
चाहिए तो न खोलना फिर मुँह।
 
बात मुँह से अगर नहीं निकली।
सोच ले बात, मत सितम पर तुल।
 
तू उन्हें दे न भीख की झोली।
 
तब सके बोल और बेटी क्यों।
 जब सकी वु+छ कुछ न बोल मुँहबोली।
बेटियों को बेंच बेवों को सता।
 
क्या कलेजे में नहीं चुभती सुई।
 
नाम अपना हम हँसाते क्यों रहें।
 
है हँसी थोड़ी नहीं अब तक हुई।
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