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माथा / हरिऔध

7 bytes removed, 19:39, 18 मार्च 2014
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<poem>
छूट पाये दाँव-पेचों से नहीं। 
औ पकड़ भी है नहीं जाती सही।
 
हम तुम्हें माथा पटकते ही रहे।
 
पर हमारी पीठ ही लगती रही।
चाहिए था पसीजना जिन पर।
 
लोग उन पर पसीज क्यों पाते।
 
जब कि माथा पसीज कर के तुम।
 
हो पसीने पसीने हो जाते।
</poem>
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