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ललक / हरिऔध

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<poem>
बीत पाते नहीं दुखों के दिन। कब तलक दुख सहें वु+ढ़ें कुढ़ें काँखें। 
देखने के लिए सुखों के दिन।
 
है हमारी तरस रहीं आँखें।
सुख-झलक ही देख लेने के लिए।
 
आज दिन हैं रात-दिन रहते खड़े।
 
बात हम अपने ललक की क्या कहें।
 
डालते हैं नित पलक के पाँवड़े।
</poem>
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