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एका की कमी / हरिऔध

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<poem>
धुन हमारी अलग रही बँधाती।बँधती।
एक ही राग कब हमें भाया।
 जाति रँग रंग में ढले पदों को भी। 
कब गले से गला मिला गाया।
दम सुनाने में नहीं जिस के रहा।
 
है नहीं उस की सुनी जाती कहीं।
 खोलते तो कान वै+से कैसे खोलते। 
एक सुर से बोलते ही जब नहीं।
है समाई न एक धुन अब तक।
 दिल हिले तो भला हिले वै+से।कैसे। वु+छ कुछ वु+छ कुछ है कसर मिलाने में। सुर मिले तो भला मिले वै+से।कैसे।
तो समय पर चूकते हम किस तरह।
 
जो समय की रंगतें पहचानते।
 
कौन सुर से सुर मिलाता तब नहीं।
 
सुर अगर सुर से मिलाना जानते।
बात कहते अगर नहीं बनती।
 
तो भला था यही कि चुप रहते।
 
सुर सदा है अलग अलग रहता।
 
एक सुर से कभी नहीं कहते।
</poem>
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