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चार जाति / हरिऔध

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जो अजब जोत था जगा देता। 
जाति में जाति के बसेरे में।
 देवता जो कि हैं धारातल धरातल का। क्यों पड़ा है वही ऍंधोरे अँधेरे में।
जो वहाँ अपना गिराती थी लहू।
 
जाति का गिरता पसीना था जहाँ।
 
अब दिखा पड़ती सपूती वह नहीं।
 
इन दिनों वह राजपूती है कहाँ।
जो बसा जाति को रही बसती।
 
देस में बाढ़ बीज जो बोवे।
 
बेंच कर नाम बेबसों सा बन।
 
बैस वह बैस किस लिए खोवे।
जिस जगह काँटा मिला बिखरा हुआ।
 
निज कलेजा थे बिछा देते वहाँ।
 
जो कि सेवा पर निछावर हो गये।
 
आज दिन वे जाति - सेवक हैं कहाँ।
काँपता और थरथराता है।
 
है फिसलता कभी कभी, छिंकता।
 तब भला जाति हो खड़ी वै+से।कैसे।
जब कि है पाँव ही नहीं टिकता।
वु+छ कुछ अजब है नहीं, हमें रोटी। 
पेट भर आज जो नहीं मिलती।
 
तब भला किस तरह कमाई हो।
 
जाति की जाँघ जब कि है हिलती।
खुल सकें तो भला खुलें वै+से।कैसे।
बेहतरी की रुकी हुई राहें।
 
जाति को किस तरह निबाहें तब।
 
जब कि बेकार हो गईं बाँहें।
बात न्यारी बहुत ठिकाने की।
 
दूर की सोच किस तरह पावे।
 किस तरह जाति तब न वू+र कूर बने। 
जब कि सिर चूर चूर हो जावे।
क्यों न पड़ जाँय तब रगें ढीली।
 
क्यों भला सिर न घूम जाता हो।
 तब भला जाति - तन पले वै+से।कैसे।
जब कि मुँह में न अन्न जाता हो।
क्यों न बहँके बहके सब सहे बिगड़े बहुत। 
क्यों नहीं सरबस गँवा जीते मरे।
 
किस तरह से जाति तब सँभले भला।
 
बात बे-सिर-पैर की जब सिर करे।
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