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|रचनाकार=मुज़फ़्फ़र हनफ़ी
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<poem>


कुछ न कुछ आँख के महवर से निकल आएगा
और मंज़र पसे-मंज़र से निकल आएगा

सर-ब-कफ़<ref>सर पर हाथ रखे हुए अर्थात मरने पे उतारू</ref> मौज<ref>लहर</ref> के रहवार <ref>अश्व , घोड़ा</ref> पे फिरता है हुबाब<ref>बुलबुला</ref>
टूट जाए तो समन्दर से निकल आएगा

यूँ ही लेटे रहो विश्वास की चादर ओढ़े
नींद का साया इसी डर से निकल आएगा

रौशनी जमअ करो रात कटे या न कटे
कुछ उजाला तो मेरे घर से निकल आएगा

नशअ-ए-ज़ह्र उतरते ही सवेरे हर शख़्स
केंचली छोड़ के बिस्तर से निकल आएगा

आप क्यों उसकी रवानी<ref>प्रवाह</ref> पे मुख़िल<ref>बाधक</ref> होते हैं
ख़ून फिर ख़ून है पत्थर से निकल आएगा

एक तस्वीर बनाता हूँ किसी की भी हो
नक़्श मेरा इसी पैकर से निकल आएगा

देख इस जज़्बा-ए-पामाल <ref> पाँव तले रौंदी हुई भावना या मनोवृति </ref> को आसूदा <ref>संतुष्ट</ref>कर
वर्ना ये सीँग तेरे सर से निकल आएगा

कोई ज़ह्मत न करे ग़ाज़ा<ref>मुख पर मलने वाला पाउडर</ref>-ए-फ़र्दा<ref>आने वाला कल</ref> के लिए
रंग अशआरे- ’मुज़फ़्फ़र’ से निकल आएगा

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