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उठो / भवानीप्रसाद मिश्र

14 bytes added, 06:36, 29 मार्च 2014
|रचनाकार=भवानीप्रसाद मिश्र
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बुरी बात है
 
चुप मसान में बैठे-बैठे
 दुःख सोचना , दर्द सोचना ! 
शक्तिहीन कमज़ोर तुच्छ को
 
हाज़िर नाज़िर रखकर
 
सपने बुरे देखना !
 
टूटी हुई बीन को लिपटाकर छाती से
 
राग उदासी के अलापना !
 
 
बुरी बात है !
 उठो , पांव रक्खो रकाब पर 
जंगल-जंगल नद्दी-नाले कूद-फांद कर
 
धरती रौंदो !
 जैसे भादों की रातों में बिजली कौंधे , 
ऐसे कौंधो ।
</poem>
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