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<Poem>तमाम कोशिशों के बावजूद
जमनालाल
खेत की मेड़ से नहीं हुआ टस से मस
सिक्कों की खनक से नहीं खुले
उसके जूने जहन के दरीचे।

दूर से आ रही
बंदूकों की आवाजों में खो गई
उसकी आखिरी चीख
पैरों को दोनों हाथों से बांधे हुए
रह गया दुहरा का दुहरा।

एक दिन लाल-नीली बत्तियों का
हुजूम भी लौट गया एक के बाद एक
राजधानी की ओर
दीवारों के सहारे टंगे बल्ब हो गये फ्यूज।

इधर राजमार्ग पर दौड़ते
वाहनों की चिल्ल-पो
चकाचौंध में गुम हो जाने को तैयार खडे थे
भट्टा-पारसौल, टप्पन, नंदी ग्राम, सींगूर।

और न जाने कितने गांवों के जमनालालों को
रह जाना है अभी
खेतों की मेड़ों पर दुहरा का दुहरा।
</Poem>
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