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<Poem>उपजायें तो क्या उपजायें
कि खेत से खलिहान होती हुई
फसल
पहुंच सके घर के बंडों तक
मंडियों में पूरे दाम तुलें
अनाज के ढेर।

उपजायें तो क्या उपजायें
कि साहूकार की तिजोरी से
निकालकर
घरवाली के हाथ थमा सके
कड़कड़ाट
नोटों की गड्डियां।

उपजायें तो क्या उपजायें
कि इस बरस बाद
कभी न लेना पड़े
साल दर साल
बैंक से नोड्यूज।

सफेद-काले खाद के लिए
घंटो पंक्तिबद्ध होकर
न करना पड़े
अपनी बारी का इंतजार।</Poem>
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