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साथ-साथ / ओम नागर

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<Poem>तुम निश्चय कर लेतीं
तो यूं निरूद्देश्य न होता जीवन।

ठंूठ के माथे पर फूट आती दो कोंपलें
हथेली की रेखाओं से
निराली नहीं होती
भाग्य की कहानी।

तुम विचार लेतीं तो
यूं न धसकती चौमासे में भीत
घर-आंगनों के मांडणों पे
नहीं फिरता पानी
पिछली दीवारों पर चित्रित मोरनी
नहीं निगलती हीरों का हार।

जो दो पग रख लेती तुम साथ-साथ
तो इतनी जल्दी नहीं टूटती
सांसों की सरगम
सुलझाता झाड़ में उलझी लूगड़ी
भले ही
कांटों से भर जाते मेरे हाथ।</Poem>
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