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|रचनाकार।रचनाकार=सावित्री नौटियाल काला|अनुवादक।अनुवादक=|संग्रह।संग्रह=
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मेरे पैर में एक कील चुभी थी|थी।वह मुझे सालती रही जीवन भर|भर।मैं उसे सहेजती रही पालती रही|रही।वह कील मुझे अपने ही रंग में ढालती रही|रही।पर जब उसने मुझे और मेरे मन को कर दिया लहुलुहान|लहुलुहान।तब मैंने उसे उखाड़ कर फ़ेंक दिया समझ बेकार समान||समान।।
मैंने ठीक किया या गलत मैं नहीं जानती|जानती।झूठे रीति रिवाजों तथा दकियानूसी विचारो को मैं नहीं मानती|मानती।आज मेरे जैसी न जाने कितनी कील की चुभन सह रही है|है।कुछ तो न जीती है न मरती है न देहरी ही पार करती है||है।।
मैं यह भी नहीं जानती कि कीलों को उखाड़कर|उखाड़कर।फैंकने वाली दुखी है या सुखी|सुखी।कुछ ऐसी भी है जो पैरों में कील चुभने नहीं देती|देती।अगर चुभ भी जाती है तो उसे उखाड़ कर दूर फ़ेंक आती है||है।।
पर जो कील अंदर तक गढ़ जाती है|है।वह जीवन भर बड़ा सताती है|है।जब वह अपने नुकीले पंख फैलाती है|है।तो चाहने पर भी उखड़ नहीं पाती है||है।।
आज भी बहुतों के पैरों में कीलें चुभी होंगी|होंगी।उन्होंने भी वह अनचाहा दर्द सहा होगा|होगा।दुनियाँ में कील चुभाने वालों की कमी नहीं रही|रही।सहने वालों की किस्मत में तो गमी ही गमी रही||रही।।
</poem>
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