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|रचनाकार = शमशेर बहादुर सिंह
}}
{{KKCatKavita}}<poem>फिर भी क्यों मुझको तुम अपने बादल में घेरे लेती हो ? 
मैं निगाह बन गया स्वयं
 जिसमें तुम आंज गईं अपना सुर्मई सांवलापन हो ।हो।
तुम छोटा-सा हो ताल, घिरा फैलाव, लहर हल्की-सी,
 
जिसके सीने पर ठहर शाम
 
कुछ अपना देख रही है उसके अंदर,
 
वह अंधियाला...
 
कुछ अपनी सांसों का कमरा,
 
पहचानी-सी धड़कन का सुख,
 
-कोई जीवन की आने वाली भूल!
 
यह कठिन शांति है...यह
 
गुमराहों का ख़ाब-कबीला ख़ेमा :
 
 
जो ग़लत चल रही हैं ऎसी चुपचाप
 
दो घड़ियों का मिलना है,
 -तुम मिला नहीं सकते थे उनको पहले ।पहले।
यह पोखर की गहराई
 छू आई है आकाश देश की शाम ।शाम।
उसके सूखे से घने बाल
 
है आज ढक रहे मेरा मन औ' पलकें,-
 वह सुबह नहीं होने देगी जीवन में ! वह तारों की माया भी छुपा गई अपने अंचल में । में।वह क्षितिज बन गई मेरा स्वयं अजान ।अजान।</poem>
(रचनाकाल : 1938 )
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