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04:42, 26 मई 2014 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=पुष्पिता
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
वह नहीं हँस पाती है अपनी हँसी
ओंठ भूल गए हैं
मुस्कराहट का सुख
नहीं जागती है अब वैसी भूख
स्वाद के अभाव में
आँखें नहीं जानती हैं नींद
सपने में भी रोती हैं
काँप-सिहरकर
एक पेड़
जैसे जीता है
माटी के भीतर
अपनी जड़ें फेंक कर
जीने का सुख
औरत नहीं जान पाती है वैसे ही
एक नदी
जैसे बहती है
धरती के बीच
औरत बहते हुए भी
नहीं जान पाती है वह सुख।
</poem>